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ये लखनऊ की सरज़मी ये रंग रूप का चमन |

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वो बंगला जहां मैं १८ साल रहा ।  लखनऊ से मेरा रिश्ता बड़ा पुराना रहा है हाँ यह और बात है की यह रंग रूप का चमन कभी हुआ करता था मुझे तो य...

वो बंगला जहां मैं १८ साल रहा । 
लखनऊ से मेरा रिश्ता बड़ा पुराना रहा है हाँ यह और बात है की यह रंग रूप का चमन कभी हुआ करता था मुझे तो यह हमेशा एक उजड़ा हुआ चमन ही लगा ,बावजूद इसके की आज भी जो एक बार यहाँ रह जाए इसे भुला ना सकेगा और इसकी कशिश एक बार उसे यहाँ अवश्य खींच लाएगी | जैसे की मुझे यह लखनऊ ३० साल बाद एक बार फिर से खींच लाया | पिताजी रेलवे में इंजिनियर थे और जब मैं ४ साल का था तो उनका तबादला लखनऊ हो गया | छोटा सा था बहुत कुछ तो याद नहीं बस इतना याद आता है की पिताजी मेरा हाथ पकड़ के सिटी मोंटेसरी स्कूल ले गए और वहाँ नाम लिखवा दिया | रेलवे ने एक बड़ा सा बंगला दिया था रहने के लिए और अपने पड़ोस पे भटनागर साहब रहा  करते थे | बड़े से बंगले में अकेला पन महसूस होता था लेकिन एक दिन देखा पड़ोस के बंगले से २-३ बच्चे निकले और वो  भी अपनी तरफ ऐसे ही देख रहे थे जैसे वो भी किसी साथी की तलाश में हों | फिर क्या था बेबी संध्या , वंदना , अनिल सुनील और हम 5 भाई बहन एक टोली बन गयी | कभी क्रिकेट खेलते कभी व्यापार, लूडो और कभी लट्टू नचाते और जब कंचे खेलते तो देखते रहते कहीं पिताजी ना आ जायें ।


मेरा पहला स्कूल 
२ साल बाद पिताजी ने मेरा एडमिशन आर्मी स्कूल में करवा दिया जहां से मैंने हाई स्कूल पास किया और देखते देखते मेरे जीवन के १८ साल गुज़र गए उस बंगले में और मैं अब स्नातक होने जा रहा था | ना जाने इन १८ सालो में कितनी यादें उस बंगले में छोड़ के हम अल्लाहाबाद चले गए क्यूँ की पिताजी ता तबादला हो गया था | उन दिनों अपनी दुनिया चारबाग़ , सदर, आलमबाग और कांत हुआ करती थी | हजरत गंज और पुराने लखनऊ तीज त्यौहार में ही जाया करते थे | पडोशी भटनागर साहब के घर के लोग अपने भाई बहन जैसे लगते थे जिनकी याद आज भी आती है और आज तक रिश्ते जुड़े हैं जबकि लखनऊ छोड़े ३० वर्षों से अधिक हो चुके हैं |


चारबाग़ स्टेशन पुल से 
पढ़ाई पूरी करने के बाद मुंबई का रुख किया फिर उसे ही कर्म भूमि बना लिया | लखनऊ वापस लौट के आना ही नहीं हुआ क्यूँ की जब भी आता तो अपने वतन जौनपुर छुट्टियों में आता और वहीँ से वापस मुंबई चला जाता | अब उम्र हो रही हैं काम से बचा के अपने लिए कुछ समय निकाल ही लेता हूँ जिसमे अपने शौक पूरे करता हूँ और हूँ तो मैं पैदायशी घुमक्कड़ | ऐसे में लखनऊ एक बार फिर से याद आ गया | ३०-31 सालों बाद जब लखनऊ स्टेशन पे उतरा तो एक बार ऐसा लगा  मैं फिर से जवान हो गया | ऐसा इसलिए लगा क्यूँ की स्टेशन ज़रा सा भी नहीं बदला था वही पुरानी ईमारत वही रास्ते का पुल और उसपार जाने के रास्ते पे मूत्रालय बनाए हुए लोग | वही खम्मन पीर बाबा की मज़ार और उनपे श्रधालुओं की भीड़ |  ना शहर बदला था ना चारबाग का इलाका |शहर में जो तब्दीली हुए वो यही की महानगर की जगह अब इंदिरा नगर तक जा लगा था ,गोमती नगर एक अमीर लोगों का इलाका हो गया था और अब गार्डन में नौजवान जोड़े अक्सर इश्क लगाते दिख जाया करते थे जो उन पुराने दिनों में संभव नहीं था | बाक़ी हरदोई रोड, रायबरेली रोड यहाँ तक की शहर के अंदर का इलाका खुदा बड़ा था ऐसा लगता था जैसे पूरे लखनऊ में कोई खुदाई अभियान चलाया जा रहा है | मालूम हुआ अब यहाँ भी लोगों को अपना घर बनाने का नशा चढ़ा है और एक plot अपना हो ऐसे सपने अब यहाँ के रिक्शे वाले भी देखने लगे थे |


बंगलो का पिछला गेट 

अशोक का वही पुराना  का पेड़ 
पुराने लखनऊ के कुछ इलाके जैसे चौपतियाँ , कश्मीरी मोहल्ला, नखास इत्यादि में तो ऐसा लगता था ३० साल पहले जहां पान  खा के थूका था वो आज भे वैसा ही दीवारों पे लगा है | लोगों के मिज़ाज  वही तोता चश्मी और वही पड़ोसियों में आपसी इर्ष्य और कम्पटीशन की आदत | वही किताबों की दूकान में बैंक, रेलवे , इत्यादि नौकरियों के इश्तेहार और किताबी कुंजियों की भरमार  | कुछ भी तो नहीं बदला था |

हाँ जो बदला था उसे मेरी नज़र से महसूस भी किया और सोंच के भावुक हो उठा क्यूंकि जवानी की कुछ सुनहरी यादें उस से जुडी थीं  | तुलसी और मेफेयर पिक्चर हाल अब नहीं रहा था और गार्डन में अब जोड़े आराम से बैठ इश्क लड़ा सकते थे | तभी मैं भी मुंबई में बैठा सोंचता था महफूज़ साहब बातें तो ऐसी करते हैं जैसे मुंबई में रहते हों वहाँ कहाँ लखनऊ में हरियाली | लेकिन भाई महफूज़ सही थे | आरे भाई मैं मजाक कर रहा हूँ वरना महफूज़ भाई एक बेहतरीन इंसान हैं |







मेरा बचपन 
एक दिन दिल किया चलो अपने पुराने बंगले को देख आते हैं चारबाग में कैसा है अब ? चारबाग़  स्टेशन से उस पुल को पुल पार करता हुआ चला जिसे १८ साल दिन में दो बार अवश्य पार करता था वही पुराना मज़ा आ रहा था और आज़ादी में उन दिनों में जीने लगा था जब न थकन थी ना कोई ज़िम्मेदारी | पुल से उतर के जब बंगले तक पहुंचा तो आँखों  में पुराने दिनों को याद कर के आंसू आ गए | बंगला तो जाने दें अशोक के पेड़ भी वैसे ही थे और मेरे हाथ से खोदा गया मेरा नाम आज भी लिखा था बस पेड़ के तने और छाल से घिर गया था | वहाँ रहने वालों ने ख़ुशी से स्वागत किया और मुझे अपने घर ले गए | फिर वहाँ से अपने स्कूल गया , पड़ोस में गया , दोस्त जहां रहते थे , जहां खेला करते थे , सभी जगह गया | मन भावुक हो उठा था ,आधे मन से वापस आने लगा तो सोंच  रहा था |

कुछ भी तो नहीं बदला बस जो कुछ बदला था वो मैं खुद था | ना बचपन रहा था जा जवानी थी , ना माता पिता की वो मुहब्बत थी ना बचपन की वो आज़ाद ज़िन्दगी | उस बंगले में अब कोई और रहता था  और अब उसके बच्चे उसे स्कूल में पढ़ते थे | पुराने लोग जाते हैं नए आते है बचपन की आजादी बुढापे की जिम्मेदारियों  में बदल जाती है जब कि यह संसार वैसे ही चलता  रहता है | इसी तरह जीवन का अंत हो जाता है | सुना हाई उस दुनिया से म्रत्यु के बाद आत्मा कभी कभी इस दुनिया में आती है | शायद वो भी कुछ ऐसा ही महसूस करती होगी जैसा मैं ३० साल बाद लखनऊ में महसूस कर रहा हूँ | तलाश रहा था कोई तो उस ३० साल पुराने समय का मिल जाए लेकिन कोई नहीं मिला | एक अकेला पण सा महसूस हुआ जहां ३० साल पहले अपनों के बीच रहा था | इसी लिए मरने वालों की याद बाकी रखो जिस से वो जब दुनिया में कभी आयें तो खुश हों की उनके बेटों ने उनको भुलाया नहीं| और ऐसा तक होगा जब आप किसी के लिए इस दुनिया से कुछ नेकी करके जायेंगे |जीवन में ऐसे कर्म करो की दुनिया तुम्हे तुम्हारे जाने के बाद भी याद करे |


वापस चारबाग़ से जा रहा था और मन  ही मन गुनगुना रहा था “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन “ जो अब कभी लौटने वाले नहीं थे |  





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