आज पेश ए खिदमत हैं अमन के पैग़ाम कि अड्तीस्वीं पेशकश जनाब फ़ज़ल इमाम मल्लिक की दिलीप कुमार से बातचीत के कुछ हिस्से. मैं जनाब फ़ज़ल इमाम...
आज पेश ए खिदमत हैं अमन के पैग़ाम कि अड्तीस्वीं पेशकश जनाब फ़ज़ल इमाम मल्लिक की दिलीप कुमार से बातचीत के कुछ हिस्से. मैं जनाब फ़ज़ल इमाम मल्लिक का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने इसको "अमन के पैग़ाम" से पेश करने कि इजाज़त दी. मैं जनाब रिजवान मुस्तफा साहब का भी शुक्रगुजार हूँ जिन्हीने मुझे इस बेहतरीन बात चीत कि याद दिलाई.
अमिताभ बच्चन ने कभी दिलीप कुमार के बारे में कहा था कि ‘वे महान कलाकार हैं। कोई भी कलाकार जो यह कहता है कि वह उनसे प्रभावित नहीं है झूठ बोलता है।’ पर मेरा मानना है कि दिलीप कुमार एक अच्छे इंसान पहले हैं और कोई भी आदमी उनसे मिल कर प्रभावित नहीं होता है तो वह झूठ बोलता है। उनसे मिलना, बातें करना और उन्हें सुनना अपने आप में एक अनुभव से गुज़ारने जैसा है।
दिलीप कुमार से फ़ज़ल इमाम मल्लिक की बातचीत के कुछ हिस्से .
स्थान ताज बंगाल होटल, अब कोलकाता।
मज़हब को अब किस रूप में देखते हैं? व्यक्तिगत आस्था या फिर सार्वजनिक प्रदर्शन के रूप में?
देखो भाई। मज़हब तो काफ़ी सीधी-साधी चीज़ है। इंसान और जानवरों की अलग करने की प्रक्रिया का नाम मज़हब है। मज़हब इंसान को इंसानियत का पैग़ाम देता है। सारे मज़हब, वह चाहे इसलाम हो, हिंदू धर्म हो, पारसी, ईसाई या फिर सिख हो, यही बात सिखते हैं। मज़हब दरअसल ‘सोशियो मारल डिसिपलीन’ का सबक़ देता है। मज़हब का एक मुख़्तसर मायने यह है कि ज़ुल्म न करो, किसी का हक़ न मारो, दूसरों से मोहब्बत करो, हो सके तो किसी की मदद करो। न कर सको तो किसी को नुकसान न पहुँचाओ। इसके कुछ इंसानी कोड ऑफ कंडक्ट हैं। मज़हब से लोग एक दूसरे तक पहुँचते हैं। मज़हब दिखावा की इज़ाज़त ही कहाँ देता है।धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की मूल भावना एक है या दोनों अलग-अलग?
सेक्युलिरिज्म का अर्थ डिक्शनरी के हिसाब से तो यह है कि ख़ुदा को मानना ही नहीं। लेकिन लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्ष का अर्थ बदल जाता है। पर आज इसके नाम पर जो हो रहा है, वह अलग क़िस्म की ही चीज़ है। मज़हबी बातों को लोग अब एक अलग तरह का मेयार बना लेते हैं। सोसायटी से ऐसे लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए। लोग आज मज़हब को अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और उसे अपने-अपने तरीक़े से अपने-अपने पैमाने में ढाल रहे हैं। मज़हब के उसूलों को तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने रखा जा रहा है और अब यही सब लोगों के भीतर घर कर गया है। मज़हब के नाम पर आज जो कुछ भी हो रहा है वह ढकोसला है, मज़हब नहीं। इसे दूसरे अर्थों में यूं कहें कि आज जो कुछ भी हम देख रहे हैं वह मज़हब का मज़ाक़ उड़ाना है।आज के माहौल में मज़हब व सियासत का रिश्ता फिर कैसा होना चाहिए?
जैसा कि मैंने कहा कि मज़हब आज सिर्फ़ मज़ाक़ बन कर रह गया है। तो ऐसे में मेरा मानना है कि इस पर सिरे से रोक लगा देनी चाहिए। वैसे मज़हब का सियासत से कोई बैर नहीं है। मज़हब ज़िंदगी के कामों में रूहानी अमल की तरह जुड़ा है। दुनियावी निज़ाम काफ़ी जटिल है। अपने समाज व मुल्क को बचाने के लिए हमें एक सोच की ज़रूरत होती है। ख़ास कर साइंस व तकनीकी प्रक्रियाओं की जटिलताओं से निकलने के लिए, हमें एक राह चुननी होती है। मज़हब इस राह पर चलने में मदद देता है।मज़हब और फ़िरक़ापरस्ती एक दूसरे से काफ़ी नज़दीक है?
नहीं, बिल्कुल नहीं। दोनों नज़दीक हो ही नहीं सकते। मज़हब तो शुद्ध व पवित्र होता है। पर फ़िरक़ापरस्ती सत्ता हासिल करने के लिए है। मज़हब लोगों के अंदर अपने आप अपना राग सुनाता है। मज़हब तो सरल होता है। चाहे हिंदू, मसुलमान हों, सिख हों या फिर दूसरे धर्म के मानने वाले। सब अपने-अपने तरीक़ों से इबादत करते हैं। मज़हब इंसान को इंसान बनाता है, लेकनि फ़िरक़ापरस्ती घर उजाड़ती है, लोगों की जान लेती है। फ़िरक़ापरस्ती जुर्म करने को उकसाती है, क़ानून तोड़ती है। फ़िरक़ापरस्तीको जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है। इसे क़ानून की मदद से ख़त्म करना होगा, क्योंकि फ़िरक़ापरस्ती न सिर्फ़ यह कि क़ानून को तहस-नहस कर रही है, बल्कि इंसान व इंसानियत को नुकसान पहुँचा रही है।मुंबई के दंगों को आप किस नज़र से देखते हैं?
मुंबई में हुआ सांप्रदायिक दंगा मज़हबी तो था ही नहीं। लेकिन इसे मज़हबी रंग दिया गया, मुसलिम और अल्पसंख्यकों के नाम पर। अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 की घटना के बाद देश में फ़साद इसी नाम पर हुए। लेनिक यह दंगे मज़हबी कम, सियासी ज़्यादा थे। इसे आप यूं कहें कि अपने-अपने सियासी फ़ायदे के लिए लोगों का गला काटा गया और फिर उसे सांप्रदायिक दंगे में बदल दिया गया।-दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती है। दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं और एक-दूसरी की ख़्वाहिशों का सम्मान करते हैं। (यह कह कर वे उठते हैं और होंठों पर मुस्कुराहट बिखेर कर कहते हैं, अब चाय पी ही लें। :)
….फ़ज़ल इमाम मल्लिक
बहुत ही जल्द आप को "अमन के पैग़ाम " पे फ़िल्मी सितारों, नेताओं, धर्म गुरों और वरिष्ट पत्रकारों के विचार "समाज मैं अमन और शांति " विषय पे पेश करने कि कोशिश करूंगा. इंतज़ार करे स.म.मासूम से सीधी बात चीत श्रेणी का...स.म.मासूम