मैथिली शरण गुप्त, (1886 - 1964) मैथिली शरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जिला में चिरगाँव ग्राम में हुआ था । इनकी शिक्षा घर प...
मैथिली शरण गुप्त, (1886 - 1964)
मैथिली शरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जिला में चिरगाँव ग्राम
मेंहुआ था । इनकी शिक्षा घर पर ही हुई और वहीं इन्होंने संस्कृत, बंगला, मराठी
ओर हिंदी शिखे ।
महाकाव्य "साकेत" (1932) के लिये उन्हे मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया । भारत सरकार
उनको पद्म भूषण से अलंकृत किया ।
इनके रचनाओं मं देशभक्ति, बंधुत्व, गांधीवाद, मानवता तथा नारी के प्रति करुणा
और सहानुभूति व्याक्त कि गई है । इनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्र-प्रेम है । वे
भारतीय संसकृति के गायक थे । इन्ही कारण उन्हे राष्ट्रकवि का सम्मान दिया
गया है । स्वतंत्रता के संग्राम के लिये उन्हे एकाधिक बार जेल भी जाना पड़ा ।
पेश है मैथली जी की खंड काव्य काबा और कर्बला के कुछ अंश | -- एस एम् मासूम
“काबा और कर्बला ”
राम जिसे मिल जाए ,उसे मोहे क्या माया ?
पाकर ऐसा पुरुष क्या नहीं किसने पाया ?
ईसा मूसा और मुहम्मद सा जो आया ,
समय समय पे एक संदेसा ही वो लाया |
आपस में ही जूझ अरब मर के मिट जाते ,
यदि इश्वेर के दूत मुहम्मद वहाँ ना आते |
वैरी हो या बंधू विचारो तुम विवेक से ,
कौन अपरचित पंथ अचानक यहाँ चुनेगा ?
पूर्व विचार -विरोध सहज ही कौन सुनेगा ?
मनो गयी परन्तु अंत में कुल कल्याणी ,
प्रभु से प्ररित संत पुरुष की अन्तर्वाणी |
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हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के बाद का चित्रण
मक्के से मिला जिन्हें पहले निष्कासन ,
सौंपा उनके हाथ मदीने ने निज शासन |
आप अकिंचन रहे देश्पति हो कर भी ,
समाधिस्त से जागरूक थे सो कर भी |
एक सूत्र में बंधी जाती उनसे अरबों की ,
न्योछावर धन राशि हुयी अरबो खरबों की |
किन्तु फातमा सुता आत्मा उनकी पक्की,
कच्चे हाथों आप चलाती अपनी चक्की |
उनके निज कुल बंधू अली को थी वो ब्याही ‘
दो पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनसे चित साही|
वो थे हसन हुसैन रूप राजा राना के ,
जिनके घोड़े बने आप कंधे नाना के |
प्रजपात ही पतितराज -पताक शासन में ,
धर्मासन अब पलट चूका था सिंघासन में |
फिर भी आया एक बार लोगों के मन में ,
रहे खिलाफत शेष नबी के ही निज जान में |
सहस कुफा नगरवासियों ने दिखलाया ,
दूत भेज हठ कर हुसैन को वहाँ बुलवाया |
हम यजीद को नहीं आप को ही मानेंगे ‘
और आपके लिए मरण जीवन जानेंगे |
जायें ना जायें हुसैन सोंच में पड़े कारें क्या ?
राज्य जाए जान-धर्म हानि से भी ना दरें क्या ?
किन्तु जनों की मानोव्रत्ति अब कहाँ ठिकाने ?
यहाँ आज यह दशा किसे हम अपना मानें ?
हा! नाना को गए अभी दिन ही के बीते ?
खो कर उनका दिया हो गए फिर हम रीते |
मरू-वर्षा ही हुयी धर्म धारा क्या वह ?
दुगने बल से रुद्ध रुछता उठो भयावह |
धन के पीछे आज धर्म भी हम खो बैठे |
सीमित वे गृह -कलह और व्यापक हो बैठे |
हुआ लोभ से मोह ,मोह से भय अब आया |
म्रत्यु-संग भी कभी जो दबा ना पाया |
किस प्रकार से सुनूँ जनों के वचन वहाँ पे |
देख रहा हूँ कर्म क्रूर ,मन कुटिल वहाँ पर |
अब नबी के निकट बंधुओं के जो घातक|
वे कर सकते नहीं लोक में कब क्या पातक?
बकरी ही की लुट गनीमत जिन लोगों में |
वे तामस दयनीय भूल राजस भोगों में |
किन्तु उन्होंने घाट किया है जैसा हमसे ?
क्या वे उसकी छमा पायेंगे उस सछम से ?
किन्तु स्वप्न में खुद नबी ने उन्हें बुलाया |
कर्बला
कुफा से इमाम हुसैन को बुलाया गया |कुफा से फिर दूत दुहाई लेकर आया |
सब प्रकार हम लोग आपके साधक होंगे |
यदि ना आयेंगे आप धार्म के बाधक होंगे |
इश्वेर साछी ,नहीं आपको हमने छोड़ा |
आये जब हम शरण ,आपने ही मुह मोड़ा |
इस प्रसंग में दोष आपमें- हममे किसका |
निर्णय होगा वहीँ न्याय के दिन क्या इसका?
अब हुसैन पर पड़ा धर्म संकट -सा आकर |
कुशल कहीं भी नहीं न जाकर अथवा आकर |
जाने की ही अंत में उनकी ठहरी |
सब स्वजनों को हुई ,चित्त में चिंता गहरी|
बोले वो -अब यही भला चला जाऊ मैं |
भला धर्म के नाम नितांत चला जाऊ मैं |
हो अलोभ,पर नहीं दीनता मेरे मन में |
मर्म भीरु से धर्म भीरु मैं भला भुवन में |
प्रेरक प्रभु की मुझे प्रेरणा तेर रही हैं |
किसी विज़न में बैठ बात बलि हेर रही है |
किन्तु स्वजन हम तुम्हें छोड़ के कहाँ रहेंगे |
बीतेगी जो जहाँ ,साथ ही साथ सहेंगे|
बोला मुस्लिम बंधू क्यूँ ना पहले मैं जाऊं |
पाऊं यदि संतोष वहाँ तो तुम्हे बुलाऊं |
कैसे भेजूं तुम्हे ,ना जून आप जहां मैं |
भेज रहे तुम कहाँ ? स्वय जा रहा वहाँ मैं |
हंस यूँ मुस्लिम गया ,उदासी सब पर छाई |
पर कुफा में नवस्फूर्ति -सी उसमे आयी |
लोगों का उत्साह देख संतुष्ट हुआ वह |
जो था अपना पछ ,और भी पुष्ट हुआ वह |
तब हुसैन को पत्र लिखा उसने आने को |
बहु संख्यक श्रद्धालु जनों के अपनाने को |
इमाम हुसैन का सफ़र ऐ कर्बला
अब सकुटुम्ब हुसैन ना जाते तो क्या करते ?
क्या यजीद की धर्म मान्यता सर पर धरते |
आज निरापद न थी स्वय निज पूरी मदीना |
मांग उठी थी शपथ उसी के अर्थ अधीना |
कुफा में भी इसी बीच उनके अधिकारी |
मचा उठे जान- दमन -दंड की मारा मरी |
त्रासक शासक सहें धर्म की भी क्यूँ सत्ता |
माने उनकी स्वय धर्म ही क्यूँ न महत्ता |
बना राजविद्रोह प्रजा का धर्म -विषय भी |
और प्रजा भय पाप राज्य -कृत निश्चित ने भी |
किन्तु दमन से बढ़ा और भी छोम मनो में |
फली चाल यह और छली खेल शासक फूले |
वर्तमान को देख लोग भावी को भूले|
फिरे हुवों ने और लजा कर मुह ही फेरा |
मुस्लिम को बहुसंख्य सैनिकों ने आ घेरा |
राजद्रोह कहा गया वह निज मन मानी |
पर प्रभु के निकट रहा निश्छल बलिदानी |
चक चौंधा कर खडग खींच कौंधा सा खेला |
पर सौ सौ थे शत्रु और वह एक अकेला |
जूझा जिस दिन इधर कीर्ति लेकर वह अमलिन|
कुफा-यात्रा की हुसैन ने उधर उसी दिन |
कर्बला काफिला हुसैन का पहुंचा
यही कर्बला छेत्र अहा! देखो वह आगे |
चिर निद्रित भी वहाँ जान पड़ते हैं जागे |
नंगी होकर नाचो जहां वह दानवता है |
मर मर कर ही बचो वहाँ यह मानवता है |
मात्र बहत्तर मनुज इधर यह डेरे डाले |
पशु बाईस सहस्त्र उतर वो लड़ने वाले |
उनके पीछे भरा फुरात नदी का जल है |
स्वेद बहाता आप मरुस्थल ताप -विकल है |
मरीचिका ही दूर दूर है द्रष्टि लुभती |
किरण किरण है यहाँ कनी की अनी चुभाती |
हूँ हूँ करती हुई ब्यार भू भाल भरती है |
धू धू करती हुयी घूमती सी रही है |
स्वामी ! स्वामी! हा! हुसैन की रानी भोली|
उन्हें बुलाकर भली शहर बानू यों बोली |
उड़ उड़ कर चुक चला भाप बन बन कर पानी |
नाथ, देव ने आज ना जाने कैसी ठानी |
उधर कपट के इधर लापत के भी हम मारे }
बच्चे कुम्भला चले फूल से हाय हमारे |
फाँस रही है रोम रोम किरणों की फांसे |
झुलसाती हैं होंठ आप अपनी ही सांसें |
रह रह मूर्छा आज चेतना में जगती है |
दूख धुप की और अँधेरी सी लगती है |
तम्बू क्या बन उठे आ तन भाड़ यहाँ पर |
फूलों से भुन जायें ना सूखे हाड़ यहाँ पर |
मेरी ओर ना हाय ! नाथ निज ओर निहारो |
निज जीवन पर तुच्छ मरण मेरा तुम वारो|
एक एक जन था हुसैन का द्रण अनुयायी |
उसमे भी अब्बास जैसा उनका भाई |
जल लाने का कार्य उन्होंने ने उसे सहेजा |
देकर कुछ जान साथ विवश होकर ही भेजा |