आज के दौर मैं किसी मुस्लमान का ग़ैर मुस्लिम से शादी केर लेना एक आम सी बात होती जा रही है .ख़ास तौर पे उन जघून पे जहां घिर मुस्लिम की तादात ज...
आज के दौर मैं किसी मुस्लमान का ग़ैर मुस्लिम से शादी केर लेना एक आम सी बात होती जा रही है .ख़ास तौर पे उन जघून पे जहां घिर मुस्लिम की तादात ज्यादा है. जब कभी ऐसा मौक़ा आता है तोह , मुस्लिम फॅमिली इस बात पे ज़ोर देती है की इस्लाम कुबूल करे पहले सामने वाला. और फिर शुरू होता है ग़ैर मज़हब वलून का इस्लाम को जबर करने वाला मज़हब करार देना.
बहुत बार ऐसा भी पाया गया है की दोनों मियां बीवी अपने अपने मज़हब पे रहते हैं और औलाद ला मज़हब हो जाया करती है. या ऐसी हो जाती है जो शिर्क भी करती है और अल्लाह की इबादत भी.
इसका बेहतरीन तरीका तोह यह है की जब दो लूग एक दूसरे से हकीकी मुहब्बत करते हैं, भरोसा करते हैं , तोह उनको अपना अपना मज़हब एक दूसरे को समझाना चाइये, दलील और अकेल के साथ और एक मज़हब पे हो जाना चाइये. इस से उनकी आगे की नस्ल ला मज़हब होने से बच जाएगी.
हेर वोह इंसान जो किसी भी मज़हब को समझ के मान रह है, उसकी नज़र मैं उसका मज़हब हक है. और वोह यह कभी नहीं चेहेगा की उनका महबूब या उसकी महबूबा ग़लत मज़हब पे रहे. इस्लाम मैं मज़हब को समझ के मान नए पे ज़ोर दिया गया है. बाप दादा के मज़हब पे इसलिय रह की वोह उनके बाप का मज़हब था मन है. और जब इस्लाम समझ के मन तोह यकीनन कोई भी अपने चाहने वाले को उसी मज़हब पे देखना चाहेगा जो हक है. और अपनी ओलाद को भी उसी मज़हब पे देखना चाहेगा जो हक है.
इस्लाम मैं किसी भी ग़ैर मज़हब की लड़की या लडके से शादी मन नहीं है, हाँ अगेर यह देर हो की आगे आने वाली नस्ल इस्लाम पे नहीं रहेगी, ला मज़हब हो जाएगी तोह यह शादी जाएज़ नहीं.
इस्लाम मैं दुनिया की किसी भी अज़ीज़ चीज़ से अज़ीज़ है अल्लाह की रज़ा.
स.म.मासूम
बहुत बार ऐसा भी पाया गया है की दोनों मियां बीवी अपने अपने मज़हब पे रहते हैं और औलाद ला मज़हब हो जाया करती है. या ऐसी हो जाती है जो शिर्क भी करती है और अल्लाह की इबादत भी.
इसका बेहतरीन तरीका तोह यह है की जब दो लूग एक दूसरे से हकीकी मुहब्बत करते हैं, भरोसा करते हैं , तोह उनको अपना अपना मज़हब एक दूसरे को समझाना चाइये, दलील और अकेल के साथ और एक मज़हब पे हो जाना चाइये. इस से उनकी आगे की नस्ल ला मज़हब होने से बच जाएगी.
हेर वोह इंसान जो किसी भी मज़हब को समझ के मान रह है, उसकी नज़र मैं उसका मज़हब हक है. और वोह यह कभी नहीं चेहेगा की उनका महबूब या उसकी महबूबा ग़लत मज़हब पे रहे. इस्लाम मैं मज़हब को समझ के मान नए पे ज़ोर दिया गया है. बाप दादा के मज़हब पे इसलिय रह की वोह उनके बाप का मज़हब था मन है. और जब इस्लाम समझ के मन तोह यकीनन कोई भी अपने चाहने वाले को उसी मज़हब पे देखना चाहेगा जो हक है. और अपनी ओलाद को भी उसी मज़हब पे देखना चाहेगा जो हक है.
इस्लाम मैं किसी भी ग़ैर मज़हब की लड़की या लडके से शादी मन नहीं है, हाँ अगेर यह देर हो की आगे आने वाली नस्ल इस्लाम पे नहीं रहेगी, ला मज़हब हो जाएगी तोह यह शादी जाएज़ नहीं.
इस्लाम मैं दुनिया की किसी भी अज़ीज़ चीज़ से अज़ीज़ है अल्लाह की रज़ा.
स.म.मासूम
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